अन्तर्द्वन्द ... दिल को छू लेने वाली कहानी


कहानियाँ तो बहुत पढ़ी है और सुनी भी बहुत है। कुछ सच्ची होती है तो कुछ काल्पनिक होती है। कुछ बन जाती है तो कुछ बुनी हुयी होती है। कहानियां राजा और रानी की हो तो बहुत पसंद की जाती है। बचपन में सुना करते थे कि एक राजा था एक रानी थी दोनों मिले और ख़त्म कहानी।
एक कहानी जो बनी नहीं बल्कि बुनी हुयी है शब्दों के ताने बाने से लेकिन इस कहानी में राजा भी है और रानी भी। इस कहानी में राजा - रानी मिल तो गए लेकिन अंत में मिलेंगे नहीं । क्यूंकि हमारा जो राजा है वो किसी और रानी का है तो हमारी रानी भी किसी और राजा की ही रानी है ...!
तो फिर क्या हुआ ख़त्म कहानी ...!
नहीं ऐसा तो नहीं लगता कि कहानी खत्म हो गयी ...जब शुरू की है तो खत्म कैसे की जाये ...मगर कहानी बुनी है तो कुछ तो बुनना ही पड़ेगा ......
तो शुरुआत रात के समय से होती है। कहानी की नायिका यानी हमारी रानी यानी वेदिका ...! की आज चूड़ियाँ और पायल कुछ ज्यादा ही खनक -छमक रहे है। कलाई भर चूड़ियाँ और बजती पायल परिवार की रीत है और फिर उसके पिया जी को भी खनकती चूड़ियाँ ही पसंद है और पायल भी।
मगर आज ये पायल - चूड़ियाँ पिया के लिए तो नहीं खनक रही , बस आज बहुत खुश है वेदिका ...! दौड़ कर सीढियाँ चढ़ रही है। छत पर पूनम का चाँद खिल रहा है।उसे छत पर से चाँद देखना नहीं पसंद।उसे तो अपनी खिड़की से ही चाँद देखना पसंद है , उसे लगता है कि खिड़की वाला चाँद ही उसका है , छत वाला चाँद तो सारी दुनिया का है।
कमरे में जाते ही देखा राघव तो सो गए हैं। थोडा मायूस हुई वेदिका , उसे इस बात से सख्त चिढ थी के जब वह कमरे में आये और राघव सोया हुआ मिले। उसे रात का ही तो समय मिलता था राघव से बतियाने का , दिन भर तो दोनों ही अपने-अपने काम , जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते हैं। लेकिन वह तो सो गया था।अक्सर ही ऐसा होता है।
थोड़ी दूर रखी कुर्सी पर वह बैठ खिड़की में से झांकता चाँद निहारती रही। फिर सोये राघव को निहारती सोच रही थी कि कितना भोला सा मासूम सा लग रहा है ,एकदम प्यारे से बच्चे जैसा निश्छल सा , और है भी वैसा ही निश्छल ...वेदिका का मन किया झुक कर राघव का माथा चूम ले , हाथ भी बढाया लेकिन रुक गयी।
संयुक्त परिवार में वेदिका सबसे बड़ी बहू है।राघव के दो छोटे भाई और भी है। सभी अपने परिवारों सहित साथ ही रहते है। राघव के माँ-बाबा भी अभी ज्यादा बुजुर्ग नहीं है।
बहुत बड़ा घर है ,जिसमे से तीसरी मंजिल पर कमरा वेदिका का है। साथ ही में एक छोटी सी रसोई है। रात को या सुबह जल्दी चाय-कॉफ़ी बनानी हो तो नीचे नहीं जाना पड़ता। बड़ी बहू है तो काम तो नहीं है पर जिम्मेदारी तो है ही। पिछले बाईस बरसों से उसकी आदत है कि सभी बच्चों को एक नज़र देख कर संभाल कर , हर एक के कमरे में झांकती किसी को बतियाती तो किसी बच्चे की कोई समस्या हल करती हुई ही अपने कमरे में जाती है। वह केवल अपने बच्चों का ही ख्याल नहीं रखती बल्कि सभी बच्चों का ख्याल रखती है। ऐसा आज भी हुआ और आदत के मुताबिक राघव सोया हुआ मिला।
राघव की आदत है बहुत जल्द नीद के आगोश में गुम हो जाना।वेदिका ऐसा नहीं कर पाती वह रात को बिस्तर पर लेट कर सारे दिन का लेखा -जोखा करके ही सो पाती है।
लेकिन आज वेदिका का मन कही और ही उड़ान भर रहा था।वह धीरे से उठकर खिड़की के पास आ गयी। बाहर अभी शहर भी नहीं सोया था। लाइटें कुछ ज्यादा ही चमक रही थी। कुछ तो शादियाँ ही बहुत थी इन दिनों , थोडा कोलाहल भी था तेज़ संगीत का , शायद नाच-गाना चल रहा है ।
उसकी नज़र चाँद पर टिक गयी और ख़ुशी थोड़ी और बढ़ गयी जो कि राघव को सोये हुए देख कर कम हो गयी थी।उसे चाँद में प्रभाकर का चेहरा नज़र आने लगा था सहसा। खिड़की वाला चाँद तो उसे सदा ही अपना लगा था लेकिन इतना अपनापन भी देगा उसने सोचा ना था।
तभी अचानक एक तेज़ संगीत की लहरी कानो में टकराई। एक बार वह खिड़की बंद करने को हुई मगर गीत की पंक्तियाँ सुन कर मुस्कुराये बगैर नहीं रह सकी। आज-कल उसे ऐसा क्यूँ लगने लगा है कि हर गीत ,हर बात बस उसी पर लागू हो रही है। वह गीत सुन रही थी और उसका भी गाने को मन हो गया ..., जमाना कहे लत ये गलत लग गयी , मुझे तो तेरी लत लग गयी ...!
अब वेदिका को ग्लानि तो होनी चाहिए , कहाँ भजन सुनने वाली उम्र में ये भोंडे गीत सुन कर मुस्कुरा रही है।लेकिन उसका मन तो आज-कल एक ही नाम गुनगुनाता है , प्रभाकर
यही प्रभाकर हमारी कहानी का राजा है ...!
वेदिका इतनी व्यस्त रहती है और घर से कम ही निकलती है , कहीं जाना हो तो पूरा परिवार साथ ही होता है लगभग तो प्रभाकर से कैसे मिली...!अब यह प्रभाकर कौन है ...?
तो क्या वह उसका कोई पुराना ...?
अजी नहीं ...! आज कल एक चोर दरवाज़ा घर में ही घुस आया है। कम्प्यूटर -इंटरनेट के माध्यम से ...!
नयी -नयी टेक्नोलोजी सीखने का बहुत शौक है वेदिका को इंटरनेट पर बहुत कुछ जानकारी लेती रहती है। बच्चों के पास बैठना बहुत भाता है उसे तो उनसे ही कम्प्यूटर चलाना सीख लिया । ऐसे ही एक दिन फेसबुक पर भी आ गयी।
फेसबुक की दुनिया भी क्या दुनिया है ...अलग ही रंग -रूप ......एक बार घुस जाओ तो बस परीलोक का ही आभास देता है। ऐसा ही कुछ वेदिका को भी महसूस हुआ।
ना जाने कब वह प्रभाकर को मित्र से मीत समझने लगी। और आज खुश भी इसीलिए है कि ...,
खट -खट आईने के आगे रखा मोबाईल खटखटा उठा था। वेदिका ने उठाया तो प्रभाकर का सन्देश था। शुभरात्रि कहने के साथ ही बहुत सुंदर मनभाता कोई शेर लिखा था। देख कर उसकी आखों की चमक बढ़ गयी। तो यही था आज वेदिका की ख़ुशी का राज़ ...पिछले एक साल से प्रभाकर से चेटिंग से बात हो रही थी आज उसने फोन पर भी बात कर ली। और अब यह सन्देश भी आ गया।
नाईट -सूट पहन अपने बिस्तर पर आ बैठी वेदिका , राघव को निहारने लगी और सोचने लगी कि यह जो कुछ भी उसके अंतर्मन में चल रहा है क्या वह ठीक है। यह प्रेम-प्यार का चक्कर ...! क्या है यह सब ...? वह भी इस उम्र में जब बच्चों के भविष्य के बारे में सोचने की उम्र है। तो क्या यह सब गलत नहीं है ? और राघव से क्या गलती हुई ...! वह तो हर बात का ख्याल रखता है उसका। कभी कोई चीज़ की कमी नहीं होने दी। अब उसे काम ही इतना है की वह घर और उसकी तरफ ध्यान कम दे पाता है तो इसका मतलब यह थोड़ी है की वेदिका कहीं और मन लगा ले। अब वेदिका का मन थोडा बैचैन होने लगा था।
वेदिका थोड़ी बैचेन और हैरान हो कर सोच रही थी। इतने उसूलों वाले विचार उसके ,इतनी व्यस्त जिन्दगी में जहाँ हवा भी सोच -समझ कर प्रवेश करती है वहां प्रभाकर को आने की इजाजत कहाँ से मिल गयी। यह दिल में सेंधमारी कैसे हो गयी उसकी।
सहसा एक बिजली की तरह एक ख्याल दौड़ पड़ा , अरे हाँ , दिल में सेंध मारी तो हो सकती है क्यूँ की विवाह के बाद , जब पहली बार राघव के साथ बाईक पर बाज़ार गयी थी और सुनसान रास्ते में उसने जरा रोमांटिक जोते हुए राघव की कमर में हाथ डाला था और कैसे वह बीचराह में उखड़ कर बोल पड़ा था कि यह कोई सभ्य घरों की बहुओं के लक्षण नहीं है , हाथ पीछे की ओर झटक दिया था। बस उसे वक्त उसके दिल का जो तिकोने वाला हिस्सा होता है , तिड़क गया ...और वेदिका उसी रस्ते से रिसने लगी थोड़ा - थोड़ा , हर रोज़ ....,
हालाँकि बाद में राघव ने मनाया भी उसे लेकिन दिल जो तिड़का उसे फिर कोई भी जोड़ने वाला सोल्युशन बना ही नहीं। वह बेड -रूम के प्यार को प्यार नहीं मानती जो बाते सिर्फ शरीर को छुए लेकिन मन को नहीं वह प्यार नहीं है।
सोचते-सोचते मन भर आया वेदिका का और सिरहाने पर सर रख सीधी लेट गयी और दोनों हाथ गर्दन के नीचे रख कर सोचने लगी।
पर वेदिका तू बहुत भावुक है और यह जीवन भावुकता से नहीं चलता ...! यह प्रेम-प्यार सिर्फ किताबों में ही अच्छा लगता है ,हकीकत की पथरीली जमीन पर आकर यह टूट जाता है ...और फिर राघव बदल तो गया है न , जैसे तुम चाहती हो वैसा बनता तो जा ही रहा है ...! वेदिका के भीतर से एक वेदिका चमक सी पड़ी।
हाँ तो क्या हुआ ...! का वर्षा जब कृषि सुखाने .....मरे , रिसते मन पर कितनी भी फ़ुआर डालो जीवित कहाँ हो पायेगा ...! वेदिका भी तमक गयी।
करवट के बल लेट कर कोहनी पर चेहरा टिका कर राघव को निहारने लगी और धीरे से उसके हाथ को छूना चाहा लेकिन ऐसा कर नहीं पायी और धीर से सरका कर उसके हाथ के पास ही हाथ रख दिया। हाथ सरकने -रखने के सिलसिले में राघव के हाथ को धीरे से छू गया वेदिका का हाथ। राघव ने झट से उसका हाथ पकड लिया। लेकिन वेदिका ने खींच लिया अपना हाथ , राघव चौंक कर बोल पड़ा ,क्या हुआ ...!
कुछ नहीं आप सो जाइये ... वेदिका ने धीरे से कहा और करवट बदल ली।
सोचने लगी , कितना बदल गया राघव ...! याद करते हुए उसकी आँखे भर आयी उस रात की जब उसने पास लेट कर सोये हुए राघव के गले में बाहें डाल दी थी और कैसे वह वेदिका पर भड़क उठा था , हडबडा कर उठा बैठा था ...! अब वेदिका को कहाँ मालूम था कि राघव को नींद में डिस्टर्ब करना पसंद नहीं ...! उस रात उसके तिड़के हुए दिल का कोना थोडा और तिड़क गया , वह भी टेढ़ा हो कर ...सारी रात दिल के रास्ते से वेदिका रिसती रही।
तो क्या हुआ वेदिका ...! हर इन्सान का अपना व्यक्तित्व होता है , सोच होती है। अब तुम्हारा पति है तो क्या हुआ , वह अपनी अलग शख्शियत तो रख सकता है। तुम्हारा कितना ख्याल भी तो रखता है। हो सकता है उसे भी तुमसे कुछ शिकायतें हो और तुम्हें कह नहीं पाता हो और फिर अरेंज मेरेज में ऐसा ही होता है पहले तन और फिर एक दिन मन मिल ही जाते है।थोडा व्यवहारिक बनो , भावुक मत बनो ...! अंदर वाली वेदिका फिर से चमक पड़ी।
हाँ भई , रखता है ख्याल ...लेकिन कैसे ...! मैंने ही तो बार-बार हथोड़ा मार -मार के यह मूर्त गढ़ी है लेकिन ये मूर्त ही है इसमें प्राण कहाँ डले है अभी ...! मुस्कुराना चाहा वेदिका ने।
वेदिका को बहुत हैरानी होती जो इन्सान दिन के उजाले में इतना गंभीर रहता हो ,ना जाने किस बात पर नाराज़ हो जायेगा या मुहं बना देगा ,वही रात को बंद कमरे में इतना प्यार करने वाला उसका ख्याल रखने वाला कैसे हो सकता है।
अंदर वाली वेदिका आज वेदिका को सोने नहीं दे रही थी फिर से चमक उठी , चाहे जो हो वेदिका , अब तुम उम्र के उस पड़ाव पर हो जहाँ तुम यह रिस्क नहीं ले सकती कि जो होगा देखा जायेगा और ना ही सामाजिक परिस्थितियां ही तुम्हारे साथ है , इसलिए यह पर-पुरुष का चक्कर ठीक नहीं है।
पर -पुरुष ...! कौन पर-पुरुष क्या प्रभाकर के लिए कह रही हो यह ...लेकिन मैंने तो सिर्फ प्रेम ही किया है और जब स्त्री किसी को प्रेम करती है तो बस प्रेम ही करती है कोई वजह नहीं होती। उम्र में कितना बड़ा है ,कैसा दिखता है , बस एक अहसास की तरह है उसने मेरे मन को छुआ है ...! वेदिका जैसे कहीं गुम सी हुई जा रही थी। प्रभाकर का ख्याल आते ही दिल में जैसे प्रेम संचारित हो गया हो और होठों पर मुस्कान आ गयी।
हाँ ...! मुझे प्यार है प्रभाकर से , बस है और मैं कुछ नहीं जानना चाहती ,समझना चाहती ..., तुम चुप हो जाओ ..., वेदिका थोडा हठी होती जा रही थी।
बेवकूफ मत बनो वेदिका ...!जो व्यक्ति अपनी पत्नी के प्रति वफादार नहीं है वो तुम्हारे प्रति कैसे वफादार हो सकता है , जो इन्सान अपने जीवन साथी के साथ इतने बरस साथ रह कर उसके प्रेम -समर्पण को झुठला सकता है और कहता है की उसे अपने साथी से प्रेम नहीं है वो तुम्हें क्या प्रेम करेगा। कभी उसका प्रेम आज़मा कर तो देखना ,कैसे अजनबी बन जायेगा , कैसे उसे अपने परिवार की याद आ जाएगी ...! वेदिका के भीतर जैसे जोर से बिजली चमक पड़ी। और वह एक झटके से उठ कर बैठ गयी।
हाँ यह भी सच है ...! लेकिन ...! मैं भी तो कहाँ वफादार हूँ राघव के प्रति ...! फिर मुझे यह सोचना कहा शोभा देता है कि प्रभाकर ...! वेदिका फिर से बैचेन हो उठी।
बिस्तर से खड़ी हो गयी और खिड़की के पास आ खड़ी हुई। बाहर कोलाहल कम हो गया लेकिन अंदर का अभी जाग रहा है। आज नींद जाने कैसे कहाँ गुम हो गई ...क्या पहली बार प्रभाकर से बात करने की ख़ुशी है या एक अपराध बोध जो उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था।
सोच रही थी क्या अब प्रभाकर का मिलना सही है या किस्मत का खेल कि यह तो होना ही था। अगर होना था तो पहले क्यूँ ना मिले वे दोनों।
राघव के साथ रहते -रहते उसे उससे एक दिन प्रेम हो ही गया या समझोता है ये या जगह से लगाव या नियति कि अब इस खूंटे से बन्ध गए हैं तो बन्ध ही गए बस।
नींद नहीं आ रही थी तो रसोई की तरफ बढ़ गई। अनजाने में चाय की जगह कॉफ़ी बना ली। बाहर छत पर पड़ी कुर्सी पर बैठ कर जब एक सिप लिया तो चौंक पड़ी यह क्या ...! उसे तो कॉफ़ी की महक से भी परहेज़ था और आज कॉफ़ी पी रही है ...? तो क्या वेदिका बदल गयी ...! अपने उसूलों से डिग गयी ?जो कभी नहीं किया वह आज कैसे हो हो रहा है ...!



राघव की निश्छलता वेदिका को अंदर ही अंदर कचोट रही थी कि वह गलत जा रही है ,जब उसे वेदिका की इस हरकत का पता चलेगा क्या वह सहन कर पायेगा या बाकी सब लोग उसे माफ़ करेंगे उसे ?
अचानक उसे लगने लगा कि वह कटघरे में खड़ी है और सभी घर के लोग उसे घूरे जा रहे हैं नफरत-घृणा और सवालिया नज़रों से ..., घबरा कर खड़ी हो गई वेदिका ...
वेदिका जितना सोचती उतना ही घिरती जा रही है ...रात तो बीत जाएगी लेकिन वेदिका की उलझन खत्म नहीं होगी। क्यूंकि यह उसकी खुद की पाली हुई उलझन है ...
तो फिर क्या करे वेदिका ...? यह हम क्या कहें ...! उसकी अपनी जिन्दगी है चाहे बर्बाद करे या ....
रात के तीन बजने को आ रहे थे। वेदिका घडी की और देख सोने का प्रयास करने लगी। नींद तो उसके आस - ही नहीं थी।
यह जो मन है बहुत बड़ा छलिया है। एक बार फिर से उसका मन डोल गया और प्रभाकर का ख्याल आ गया। सोचने लगी क्या वह भी सो गया होगा क्या ...? वह जो उसके ख्यालों में गुम हुयी जाग रही तो क्या वह भी ...!
खट -खट फोन खटखटा उठा , देखा तो प्रभाकर का ही सन्देश था। फिर क्या वह बात सही है कि मन से मन को राह होती है। हाँ ...! शायद , जब रानी जाग रही हो तो राजा भी जागेगा ही ...
अब इस कहानी का क्या किया जाए क्यूंकि वेदिका का अन्तर्द्वन्द खत्म तो हुआ नहीं।
उसका प्रभाकर के प्रति कोई शारीरिक आकर्षण वाला प्रेम नहीं है बल्कि प्रभाकर से बात करके उसको एक सुरक्षा का अहसाह सा देता है। वह उसकी सारी बात ध्यान से सुनता है और सलाह भी देता है, उसकी बातों में भी कोई लाग -लपेट नहीं दिखती उसे ,फिर क्या करे वेदिका ? यह तो एक सच्चा मित्र ही हुआ और एक सच्चे मित्र से प्रेम भी तो हो सकता है।
लेकिन ऐसे फोन करना या मेसेज का आदान -प्रदान भी तो ठीक नहीं ...! सोचते -सोचते वेदिका मुस्कुरा पड़ी शायद उसे कोई हल मिल गया हो।
वह सोच रही है कि फेसबुक के रिश्ते फेसबुक तक ही सिमित रहे तो बेहतर है। अब वह प्रभाकर से सिर्फ फेसबुक पर ही बात करेगी वह भी सिमित मात्रा में ही।नया जमाना है पुरुष मित्र बनाना कोई बुराई नहीं है लेकिन यह मीत बनाने का चक्कर भी उसे ठीक नहीं लग रहा था। वह प्रभाकर को खोना नहीं चाहती थी।उसने तय कर लिया कि अब वह फोन पर बात या मेसेज नहीं करेगी और सोने की कोशिश करने लगी।
अब रानी समझ गयी है तो राजा को समझना ही पड़ेगा कि असल दुनिया और आभासी दुनिया में फर्क तो होता ही है।

~ उपासना सियाग ~
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ये अंतर्द्वंद्व जिंदगी के ठहराव पर कचोटता ही है क्योंकि हमें लगता अगर ऐसा किया होता तो शायद ये ना हुआ होता जो हमारे पास होता है वो काम लगना शुरू हो जाताहै हम अपने रास्तो और मंज़िलों को शक्की नजर से देखना आरंभ कर देते है ।

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